Monday, December 20, 2010
कौरव कौन, कौन पांडव / अटल बिहारी वाजपेयी
कौन पांडव,
टेढ़ा सवाल है|
दोनों ओर शकुनि
का फैला
कूटजाल है|
धर्मराज ने छोड़ी नहीं
जुए की लत है|
हर पंचायत में
पांचाली
अपमानित है|
बिना कृष्ण के
आज
महाभारत होना है,
कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है|
Monday, December 13, 2010
लगता नहीं है जी मेरा /बहादुरशाह जफ़र
किसकी बनी है आलमे-ना-पायदार में
बुलबुल को बाग़बां से न सय्याद से गिला
क़िस्मत में क़ैद थी लिखी फ़स्ले-बहार में
कहदो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहां है दिले दाग़दार में
उम्रे-दराज़ मांग के लाए थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गए दो इंतिज़ार में
दिन ज़िंदगी के ख़त्म हुए शाम हो गई
फैला के पांव सोएंगे कुंजे मज़ार में
कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीं भी मिल न सकी कूए-यार में
Friday, December 3, 2010
तेरे माथे पर कोई, मेरा मुक़द्दर देखता/अहमद फ़राज़
कौन दरिया को उलटता, कौन गौहर देखता।।
वह तो दुनिया को, मेरी दीवानगी ख़ुश आ गई,
तेरे हाथों में वगरना, पहला पत्थर देखता।।
आँख में आँसू जड़े थे, पर सदा तुझको न दी,
इस तवक्को पर कि शायद तू पलट कर देखता।।
मेरी क़िस्मत की लकीरें, मेरे हाथों में न थीं,
तेरे माथे पर कोई, मेरा मुक़द्दर देखता।।
ज़िंदगी फैली हुई थी, शामे-हिज्राँ की तरह,
किसको, कितना हौसला था, कौन जी कर देखता।।
डूबने वाला था, और साहिल पे चेहरों का हुजूम,
पल की मौहलत थी, मैं किसको आँख भरकर देखता।।
तू भी दिल को इक लहू की बूँद समझा है 'फ़राज़',
आँख गर होती तो क़तरे में समंदर देखता।।
Tuesday, November 30, 2010
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो / बशीर बद्र
तुम्हारे नाम की इक ख़ूबसूरत शाम हो जाये
हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाये
चराग़ों की तरह आँखें जलें जब शाम हो जाये
अजब हालात थे यूँ दिल का सौदा हो गया आख़िर
मोहब्बत की हवेली जिस तरह नीलाम हो जाये
समंदर के सफ़र में इस तरह आवाज़ दो हमको
हवाएँ तेज़ हों और कश्तियों में शाम हो जाये
मैं ख़ुद भी एहतियातन उस गली से कम गुज़रता हूँ
कोई मासूम क्यों मेरे लिये बदनाम हो जाये
मुझे मालूम है उस का ठिकाना फिर कहाँ होगा
परिंदा आसमाँ छूने में जब नाकाम हो जाये
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाये
उसकी कत्थई आंखों में हैं जंतर मंतर सब / राहत इन्दौरी
चाक़ू वाक़ू, छुरियां वुरियां, ख़ंजर वंजर सब
जिस दिन से तुम रूठीं मुझ से रूठे रूठे हैं
चादर वादर, तकिया वकिया, बिस्तर विस्तर सब
मुझसे बिछड़ कर वह भी कहां अब पहले जैसी है
फीके पड़ गए कपड़े वपड़े, ज़ेवर वेवर सब
आखिर मै किस दिन डूबूँगा फिक्रें करते है
कश्ती, वश्ती, दरिया वरिया लंगर वंगर सब
Monday, November 29, 2010
एक चेहरा साथ साथ रहा जो मिला नहीं / बहज़ाद लखनवी
किसको तलाश करते रहे कुछ पता नहीं
शिद्दत की धूप तेज़ हवाओं के बावजूद
मैं शाख़ से गिरा हूँ नज़र से गिरा नहीं
आख़िर ग़ज़ल का ताजमहल भी है मकबरा
हम ज़िन्दगी थे हमको किसी ने जिया नहीं
जिसकी मुखालफ़त हुई मशहूर हो गया
इन पत्थरों से कोई परिंदा गिरा नहीं
तारीकियों में और चमकती है दिल की धूप
सूरज तमाम रात यहां डूबता नहीं
किसने जलाई बस्तियाँ बाज़ार क्यों लुटे
मैं चँद पर गया था मुझे कुछ पता नहीं
Saturday, November 27, 2010
मुसाफ़िर के रस्ते बदलते रहे / बशीर बद्र
मुक़द्दर में चलना था चलते रहे
कोई फूल सा हाथ काँधे पे था
मेरे पाँव शोलों पे चलते रहे
मेरे रास्ते में उजाला रहा
दिये उस की आँखों के जलते रहे
वो क्या था जिसे हमने ठुकरा दिया
मगर उम्र भर हाथ मलते रहे
मुहब्बत अदावत वफ़ा बेरुख़ी
किराये के घर थे बदलते रहे
सुना है उन्हें भी हवा लग गई
हवाओं के जो रुख़ बदलते रहे
लिपट के चराग़ों से वो सो गये
जो फूलों पे करवट बदलते रहे
कहाँ तक आँख रोएगी कहाँ तक किसका ग़म होगा / वसीम बरेलवी
मेरे जैसा यहाँ कोई न कोई रोज़ कम होगा
तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना रो चुका हूँ मैं
कि तू मिल भी अगर जाये तो अब मिलने का ग़म होगा
समन्दर की ग़लतफ़हमी से कोई पूछ तो लेता ,
ज़मीं का हौसला क्या ऐसे तूफ़ानों से कम होगा
मोहब्बत नापने का कोई पैमाना नहीं होता ,
कहीं तू बढ़ भी सकता है, कहीं तू मुझ से कम होगा
अपने हर लफ़्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊँगा / वसीम बरेलवी
उसको छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा
तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा भी नहीं
मैं गिरा तो मसअला बनकर खड़ा हो जाऊँगा
मुझ को चलने दो अकेला है अभी मेरा सफ़र
रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा
सारी दुनिया की नज़र में है मेरी अह्द—ए—वफ़ा
इक तेरे कहने से क्या मैं बेवफ़ा हो जाऊँगा?
Saturday, November 20, 2010
अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझ को / क़तील शिफाई
अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको
मैं हूँ तेरा नसीब अपना बना ले मुझको
मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के मानी
ये तेरी सादादिली मार न डाले मुझको
मैं समंदर भी हूँ, मोती भी हूँ, ग़ोताज़न भी
कोई भी नाम मेरा लेके बुला ले मुझको
तूने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी
ख़ुदपरस्ती में कहीं तू न गँवा ले मुझको
कल की बात और है मैं अब सा रहूँ या न रहूँ
जितना जी चाहे तेरा आज सता ले मुझको
ख़ुद को मैं बाँट न डालूँ कहीं दामन-दामन
कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको
मैं जो काँटा हूँ तो चल मुझसे बचाकर दामन
मैं हूँ गर फूल तो जूड़े में सजा ले मुझको
मैं खुले दर के किसी घर का हूँ सामाँ प्यारे
तू दबे पाँव कभी आ के चुरा ले मुझको
तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम
तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझको
वादा फिर वादा है मैं ज़हर भी पी जाऊँ "क़तील"
शर्त ये है कोई बाँहों में सम्भाले मुझको
Friday, November 19, 2010
अपने ही मन से कुछ बोलें / अटल बिहारी वाजपेयी
क्या खोया, क्या पाया जग में
मिलते और बिछुड़ते पग में
मुझे किसी से नहीं शिकायत
यद्यपि छला गया पग-पग में
एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें!
पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी
जीवन एक अनन्त कहानी
पर तन की अपनी सीमाएँ
यद्यपि सौ शरदों की वाणी
इतना काफ़ी है अंतिम दस्तक पर, खुद दरवाज़ा खोलें!
जन्म-मरण का अविरत फेरा
जीवन बंजारों का डेरा
आज यहाँ, कल कहाँ कूच है
कौन जानता किधर सवेरा
अंधियारा आकाश असीमित,प्राणों के पंखों को तौलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!
Tuesday, November 16, 2010
ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल / अमीर खुसरो
दुराये नैना बनाये बतियां |
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान,
न लेहो काहे लगाये छतियां ||
शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़
वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,
सखि पिया को जो मैं न देखूं
तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां ||
यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू
ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं,
किसे पडी है जो जा सुनावे
पियारे पी को हमारी बतियां ||
चो शमा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरान
हमेशा गिरयान, बे इश्क आं मेह |
न नींद नैना, ना अंग चैना
ना आप आवें, न भेजें पतियां ||
बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबर
कि दाद मारा, गरीब खुसरौ |
सपेट मन के, वराये राखूं
जो जाये पांव, पिया के खटियां ||
Saturday, November 13, 2010
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो, कि दास्ताँ आगे और भी है / गुलज़ार
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!
अभी तो टूटी है कच्ची मिट्टी, अभी तो बस जिस्म ही गिरे हैं
अभी तो किरदार ही बुझे हैं।
अभी सुलगते हैं रूह के ग़म, अभी धड़कते हैं दर्द दिल के
अभी तो एहसास जी रहा है।
यह लौ बचा लो जो थक के किरदार की हथेली से गिर पड़ी है
यह लौ बचा लो यहीं से उठेगी जुस्तजू फिर बगूला बनकर
यहीं से उठेगा कोई किरदार फिर इसी रोशनी को लेकर
कहीं तो अंजाम-ओ-जुस्तजू के सिरे मिलेंगे
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!
दो अनुभूतियाँ / अटल बिहारी वाजपेयी
गीत नहीं गाता हूँ
बेनक़ाब चेहरे हैं,
दाग़ बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ
लगी कुछ ऐसी नज़र
बिखरा शीशे सा शहर
अपनों के मेले में मीत नहीं पता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ
पीठ मे छुरी सा चांद
राहू गया रेखा फांद
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूँ
गीत नहीं जाता हूँ
दूसरी अनुभूति:
गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात
कोयल की कुहुक रात
प्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूँ
गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अन्तर की चीर व्यथा पलको पर ठिठकी
हार नहीं मानूँगा,
रार नई ठानूँगा,
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ
अख़बारवाला / रघुवीर सहाय
खड़ा भुलभुल में बदलता पाँव रह रह
बेचता अख़बार जिसमें बड़े सौदे हो रहे हैं ।
एक प्रति पर पाँच पैसे कमीशन है,
और कम पर भी उसे वह बेच सकता है
अगर हम तरस खायें, पाँच रूपये दें
अगर ख़ैरात वह ले ले ।
लगी पूँजी हमारी है छपाई-कल हमारी है
ख़बर हमको पता है, हमारा आतंक है, हमने बनाई है
यहाँ चलती सड़क पर इस ख़बर को हम ख़रीदें क्यो ?
कमाई पाँच दस अख़बार भर की क्यों न जाने दें ?
वहाँ जब छाँह में रामू दुआएँ दे रहा होगा
ख़बर वातानुकूलित कक्ष में तय कर रही होगी
करेगी कौन रामू के तले की भूमि पर कब्ज़ा ।
मेरे पहले प्यार / कुमार विश्वास
ओ मेरे पहले प्यार !
मुझे तू याद न आया कर
ओ शक्ति भरे अनुरक्ति भरे!
नस नस के पहले ज्वार!
मुझे तू याद न आया कर।
पावस की प्रथम फुहारों से
जिसने मुझको कुछ बोल दिये
मेरे आँसु मुस्कानो की
कीमत पर जिसने तोल दिये
जिसने अहसास दिया मुझको
मै अम्बर तक उठ सकता हूं
जिसने खुदको बाँधा लेकिन
मेरे सब बंधन खोल दिये
ओ अनजाने आकर्षण से!
ओ पावन मधुर समर्पण से!
मेरे गीतों के सार
मुझे तू याद न आया कर।
मूझे पता चला मधुरे तू भी पागल बन रोती है,
जो पीङा मेरे अंतर में तेरे दिल में भी होती है
लेकिन इन बातों से किंचिंत भी अपना धैर्य नही खोना
मेरे मन की सीपी में अब तक तेरे मन का मोती है,
ओ सहज सरल पलकों वाले!
ओ कुंचित घन अलकों वाले!
हँसते गाते स्वीकार
मुझे तू याद न आया कर।
ओ मेरे पहले प्यार
मुझे तू याद न आया कर
Friday, October 29, 2010
रात आधी खींचकर मेरी हथेली एक उँगली से लिखा था ’प्यार’ तुमने / हरिवंशराय बच्चन
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।
फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में
और चारों ओर दुनिया सो रही थी,
तारिकाएँ ही गगन की जानती हैं
जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी,
मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे
- अधजगा-सा और अधसोया हुआ सा,
- रात आधी खींच कर मेरी हथेली
- अधजगा-सा और अधसोया हुआ सा,
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।
एक बिजली छू गई, सहसा जगा मैं,
कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में,
इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू
बह रहे थे इस नयन से उस नयन में,
- मैं लगा दूँ आग इस संसार में है
- प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर,
- जानती हो, उस समय क्या कर गुज़रने
- के लिए था कर दिया तैयार तुमने!
- मैं लगा दूँ आग इस संसार में है
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।
प्रात ही की ओर को है रात चलती
औ’ उजाले में अंधेरा डूब जाता,
मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी,
खूबियों के साथ परदे को उठाता,
- एक चेहरा-सा लगा तुमने लिया था,
- और मैंने था उतारा एक चेहरा,
- वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने पर
- ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने।
- एक चेहरा-सा लगा तुमने लिया था,
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।
और उतने फ़ासले पर आज तक सौ
यत्न करके भी न आये फिर कभी हम,
फिर न आया वक्त वैसा, फिर न मौका
उस तरह का, फिर न लौटा चाँद निर्मम,
- और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ,
- और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ,
- क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं--
- बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो
- रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने।
- बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।
क्षण भर को क्यों प्यार किया था? - हरिवंशराय बच्चन
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर,
पलक संपुटों में मदिरा भर
तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था?
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
‘यह अधिकार कहाँ से लाया?’
और न कुछ मैं कहने पाया -
मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
वह क्षण अमर हुआ जीवन में,
आज राग जो उठता मन में -
यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
Monday, August 23, 2010
*Experience is not what happens to a man. It is what a man does with what happens to him.
*We should be careful to get out of an experience only the wisdom that is in it - and stop there; lest we be like the cat that sits down on a hot stove-lid. She will never sit down on a hot stove-lid again and that is well; but also she will never sit down on a cold one anymore.
*No physician is really good before he has killed one or two patients.
*The bathtub was invented in 1850 and the telephone in 1875. In other words, if you had been living in 1850, you could have sat in the bathtub for 25 years without having to answer the phone.
*The telephone is a good way to talk to people without having to offer them a drink.
*Middle age: When you're sitting at home on Saturday night and the telephone rings and you hope it isn't for you.
*I like my new telephone, my computer works just fine, my calculator is perfect, but Lord, I miss my mind!
*I'd rather sit down and write a letter than call someone up. I hate the telephone.
*If you were going to die soon and had only one phone call you could make, who would you call and what would you say? And why are you waiting?
*As a teenager you are at the last stage in your life when you will be happy to hear that the phone is for you.
*Women like silent men. They think they're listening.
*A male gynecologist is like an auto mechanic who has never owned a car.
*The average woman would rather have beauty than brains, because the average man can see better than he can think.
Sunday, June 13, 2010
चुटकी में
सड़क पर आ गए कितने ही साहूकार चुटकी में
जो कहते थे नहीं होता कभी है प्यार चुटकी में
चुरा कर ले गये दिल करके आँखें चार चुटकी में
यहाँ पर ईद हो दीपावली हो या कि हो क्रिस्मस
झुलस जाते हैं दंगे में सभी त्योहार चुटकी में
कभी है डूब जाती नाव भी मँझधार चुटकी में
घड़ा कच्चा लगा जाता कभी है पार चुटकी में
पहाड़ी मौसमों-सा रँग बदलता है तेरा मन भी
कभी इक़रार चुटकी में कभी इन्कार चुटकी में
यहाँ दो जून रोटी भी जुटाना खीर टेढ़ी है
मगर उपलब्ध हैं बन्दूक बम तलवार चुटकी में
दो दिलों के दरमियाँ - कुंवर बेचैन
चहचहाती बुलबुलों पर विषबुझे खंजर न फेंक
हो सके तो चल किसी की आरजू के साथ-साथ
मुस्कराती ज़िंदगी पर मौत का मंतर न फेंक
जो धरा से कर रही है कम गगन का फासला
उन उड़ानों पर अंधेरी आँधियों का डर न फ़ेंक
फेंकने ही हैं अगर पत्थर तो पानी पर उछाल
तैरती मछली, मचलती नाव पर पत्थर न फेंक
Wednesday, April 14, 2010
नज़र
नज़र से देखता हूँ .....
तुम बुरा न मान जाओ बड़े देर से देखता हूँ....
जब भी देखता हूँ तुम्हे ...
तुम रोज़ नयी लगती हो
इसलिए मैं तुम्हे फिर से देखता हूँ
मगर आज तुम्हारी नज़रों की किताब से पढ़ा....
शायद तुम सोचती हो की मैं बुरी नज़र से देखता हूँ......
"Do you think the people who were trying to reach to the Everest were not full of doubts? For a hundred years, how many people tried and how many people lost their lives? Do you know how many people never came back? But, still, people come from all over the world, risking, knowing they may never return. For them it is worth it - because in the very risk something is born inside of them: the center. It is born only in the risk. That's the beauty of risk, the gift of risk."
Thursday, February 25, 2010
"Nobody is here to fulfill your dream. Everybody is here to fulfill his own destiny, his own reality."
TU
तेरे दिल को छु जाती हैं,
और हमारे तेरे ही लिए लिखे गीत
तुझे छु नहीं पाते हैं,
क्या क्या न चाहा ज़िन्दगी से
हर ख्वाब कहा पुरे हो पाते हैं
कांच टूटने की आवाज़ न आई अभी
उस आवाज़ के डर से अश्क बहते जाते हैं,
तुम तो हर बार कह जाते हो न रो
हम ही खुद को संभल नहीं पाते हैं,
तू साथ है हर पल (शायद)
(फिर भी) तेरा दमन छूटने के दर से सहम जाते हैं,
ज़िन्दगी से बढकर है तू
फिर भी तूझे कुछ , हम दे नहीं पाते हैं ,
प्यार से ज्यादा मिला है तुझसे
कुछ पल को फिर भी, अधूरे से रह जाते हैं
क्या क्या न चाहा ज़िन्दगी से
हर ख्वाब कहाँ पुरे हो पाते हैं
Monday, February 22, 2010
अशलील
जो आँख ने आँख के पानी में
डूब कर देखा।
अशलील वो था
जो आँख ने आँख के पानी को
मार के देख लिया
Monday, February 15, 2010
बन्द गली का आखिरी मकान मत बनना
बन्द गली का आखिरी मकान मत बनना
जहाँ सारी उम्मीदें दम तोड़ दें
जहाँ सपने भी आकर संग छोड़ दें
दिन अकेला हो, सहमी स्याह रात हो
सिर्फ सन्नाटा हो, गम की बारात हो
मत बनना, ऐसा बियाबान मत बनना
बंद गली का आखिरी मकान मत बनना
अगले दरवाजे पे कुछ गलियाँ जरूर मिलती हों
घर की दीवारों मेंकुछ खिड़कियाँ भी खुलती हों
एक नई राह जो भीतर से बाहर आए
एक राह
जो उफक तक जाए
ऐसी एक राह बनाकर रखना
आकाशगंगा तक साथी उड़ान तुम भरना
बंद गली का आखिरी मकान मत बनना
दिल की दीवारें इतनी ऊँची न हों
कि कोई आ न सके
खुशी का गीत रचे
और तुम्हें सुना न सके
सितारे चमकें न सूरज आए
चाँद भी राह में ठिठक जाए
हँसना मत भूलना
आँखों को नम मत करना
रीत के नाम पर खुशियों का दान मत करना
मौन मत ओढ़ना
हक को मत छोड़ना
कुछ भी बनना,
महान मत बनना
बंद गली का आखिरी मकान मत बनना।
From Amitabh Bachchan's Blog
"On this day 13th of February 1931 in the early hours of the morning, three legendary Freedom fighters Bhagat Singh, Rajguru and Sukhdev were hung to death by the British.
No one remembers this day, for the heroic sacrifices that these brave and committed sons of the soil made for the independence of their Motherland.
All we read is about Valentine’s Day, Mother’s Day, Father’s Day …
Every day is for love and respect for your Father and your Mother …
But what of the respect and love for those that gave up their lives so we could breathe the air of freedom …"
“ Not all fingers are the same in length. But when they are bent they all stand equal. Life becomes easy when we bend and adjust to situations. “
“ The ultimate truth of life is that – success always kisses you in private, but failure always kicks you in public. “
“ Stone breaks the head, but water breaks the stone. Anger suppresses your enemy, but forgiveness destroys the enmity. “
Saturday, February 13, 2010
कब लिख पाई लेखनी, आँसू का इतिहास।।
आँखों में तिरने लगी, भावों की तस्वीर।
बिन बोले ही कह गई, कितना मन की पीर।।
आँखें भी ख़ामोश थीं, और अधर भी मौन।
फिर बातें करता रहा, जाने मुझसे कौन।।
कलम हुई बैसाखियाँ, बुज़दिल कलाम।
झुक-झुक कुबड़े कर रहे, सत्ता तुझे सलाम।।
लगी खेलने लेखनी, सुख-सुविधा के खेल।
फिर सत्ता की नाक में, डाले कौन नकेल।।
Happy Valentine Day
भूख न देखे मांस
उम्र न देखे मौत
इश्क न देखे जात
Happy Valentine Day to All
आभार
"Do not believe in anything simply because you have heard it। Do not believe in anything simply because it is spoken and rumored by many। Do not believe in anything simply because it is found written in your religious books. Do not believe in anything merely on the authority of your teachers and elders. Do not believe in traditions because they have been handed down for many generations. But after observation and analysis, when you find that anything agrees with reason and is conducive to the good and benefit of one and all, then accept it and live up to it."
"The way is not in the sky. The way is in the heart."