Saturday, February 13, 2010

बार-बार लिखकर थकी, थककर हुई उदास।
कब लिख पाई लेखनी, आँसू का इतिहास।।
आँखों में तिरने लगी, भावों की तस्वीर।
बिन बोले ही कह गई, कितना मन की पीर।।

आँखें भी ख़ामोश थीं, और अधर भी मौन।
फिर बातें करता रहा, जाने मुझसे कौन।।

कलम हुई बैसाखियाँ, बुज़दिल कलाम।
झुक-झुक कुबड़े कर रहे, सत्ता तुझे सलाम।।

लगी खेलने लेखनी, सुख-सुविधा के खेल।
फिर सत्ता की नाक में, डाले कौन नकेल।।

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