Thursday, April 28, 2011

दोनों ही पक्ष / कुंवर बेचैन

दोनों ही पक्ष आए हैं तैयारियों के साथ
हम गरदनों के साथ है वो आरियों के साथ
बोया न कुछ भी ओर फ़सल ढूँढ़ते हैं लोग
कैसा मज़ाक चल रहा है क्यारियों के साथ

तुम ही कहो कि किस तरह उसको चुराऊँ मैं
पानी की एक बूँद है चिनगारियों के साथ

सेहत हमारी ठीक रहे भी तो किस तरह
आते हैं घर हक़ीम भी बीमारियों के साथ

कुछ रोज़ से मैं देख रहा हूँ कि हर सुबह
उठती है एक कराह भी किलकारियों के साथ

Monday, April 18, 2011

ख़तरे में इस्लाम नहीं / हबीब जालिब

ख़तरा है जरदारों को
गिरती हुई दीवारों को
सदियों के बीमारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं

सारी ज़मीं को घेरे हुए हैं आख़िर चंद घराने क्यों
नाम नबी का लेने वाले उल्फ़त से बेगाने क्यों

ख़तरा है खूँखारों को
रंग बिरंगी कारों को
अमरीका के प्यारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं

आज हमारे नारों से लज़ी है बया ऐवानों में
बिक न सकेंगे हसरतों अमों ऊँची सजी दुकानों में

ख़तरा है बटमारों को
मग़रिब के बाज़ारों को
चोरों को मक्कारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं

अम्न का परचम लेकर उठो हर इंसाँ से प्यार करो
अपना तो मंशूर है ‘जालिब’ सारे जहाँ से प्यार करो

ख़तरा है दरबारों को
शाहों के ग़मख़ारों को
नव्वाबों ग़द्दारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं

Tuesday, April 12, 2011

अब अगर आओ तो / जावेद अख़्तर

अब अगर आओ तो जाने के लिए मत आना
सिर्फ एहसान जताने के लिए मत आना

मैंने पलकों पे तमन्‍नाएँ सजा रखी हैं
दिल में उम्‍मीद की सौ शम्‍मे जला रखी हैं
ये हसीं शम्‍मे बुझाने के लिए मत आना

प्‍यार की आग में जंजीरें पिघल सकती हैं
चाहने वालों की तक़दीरें बदल सकती हैं
तुम हो बेबस ये बताने के लिए मत आना

अब तुम आना जो तुम्‍हें मुझसे मुहब्‍बत है कोई
मुझसे मिलने की अगर तुमको भी चाहत है कोई
तुम कोई रस्‍म निभाने के लिए मत आना